तलवाड़ा, 19 जुलाई (बलदेव राज टोहलु): भारतीय (सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण व संवर्धन को प्रयासरत कला एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अग्रणीय सामाजिक संगठन “यूथ डेवेलपमेंट क्लब” सांस्कृतिक विरासत को सहेजने व विकास में अग्रणी भूमिका निभा रहा है l विलुप्त हो रही प्राचीन परम्परागत लोक नाट्य परम्परा का संकलन कर इसे सहेजा जा रहा है l सीमांत गांव जोह में आयोजित सांस्कृतिक कार्यशाला में युवा संस्कृति सचेतक मीनाक्षी ने जानकारी देते हुए कहा कि भौतिकतावादी विकास के लिए भले हम बार-बार पश्चिम की ओर देखते हों, लेकिन विचार और संस्कार के लिए पश्चिम हमेशा पूरब की ओर ही देखता रहा है। प्राकृतिक आपदाएं और बाहरी हमले भी हमारी यह पहचान मिटा नहीं सके।
उन्होंने कहा कि इस सांस्कृतिक विरासत को स्मृति रूप में सहेजने के दो ही सर्वोत्तम माध्यम थे- एक तो अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाना और दूसरा सूत्र रूप में याद कर लेना। जिन चीजों को हमने अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना लिया उनका बहुत बड़ा हिस्सा आज भी हमारे परिवारों में सुरक्षित है। जीवनशैली के सृजन में हमारे समाज में हमेशा से स्त्रियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है।
उन्होंने सभी महत्वपूर्ण चीजों को संस्कारों और उनसे जुडे रीति-रिवाजों का हिस्सा बना दिया। चाहे वह उपनयन संस्कार के अवसर पर शिक्षा और सादगी का महत्व बताने वाले लोकगीत गाने की बात हो या विवाह के अवसर पर हल्दी का उबटन लगाने की।
इस अवसर पर शिक्षाविद कविता ने कहा कि अपनी परंपरा के प्रति स्त्रियों की प्रतिबद्धता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या होगा कि अत्याधुनिक परिवारों में भी खास अवसरों पर स्त्रियां अपने परंपरागत परिधानों में ही देखी जाती हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि दादा-नाना द्वारा सहेजे गए वे सूत्र छूटने लगे हैं जिन्हें सहेजना पुरुषों की जिम्मेदारी थी।
उन्होंने बताया कि लोक की धारा में जाएं तो पाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने मौसम विज्ञान से लेकर आयुर्वेद तक के सारे महत्वपूर्ण सूत्र तुकबंदियों में सहेज रखे थे और त्योहारों से जुड़े लोकगीतों में इन्हें धुन भी दे दी थी। अफसोस कि अब गांवों तक में त्योहारों पर लोकगीतों की जगह डीजे लेता जा रहा है और इस शोर में हमारे बहुमूल्य सूत्र जाने कहां खोते चले जा रहे हैं। हमारे कुछ युवा इस मामले में तब सचेत हुए जब उन्होंने देखा कि नीम से लेकर बासमती तक के औषधीय गुणों के पेटेंट अमेरिका के नाम हो गए। जबकि है यह
हमारी अपनी ही कई पीढ़ियों के अनुभवों का निचाेड़ हैं। कुछ युवाओं ने हमारी संस्कृति के ऐसे तत्वों की विडियो रिकॉर्डिग और उनके इंटरनेटीकरण की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन क्या अपनी विरासत को सहेजने के लिए इतना ही प्रयास काफी होगा! हम इन्हें सहेज सकें, इसके लिए जरूरत इस बात की है कि हम इन्हें अपनी सामान्य आदत और दिनचर्या में लाएं। फिर-फिर अनुशीलन कर इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाएं।