मोबाइल गेम खेलने के लिए बच्चे हिंसक वारदातों से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। लखनऊ में पबजी खेलने से रोकने पर मां की हत्या किए जाने की घटना को 2 दिन ही बीते कि दो और घटनाएं सामने आई हैं। मुंबई में एक किशाेर ने ट्रेन के आगे कूदकर खुदकुशी कर ली। उसे मां ने गेम खेलने से राेका था। वहीं झांसी का 10वीं का छात्र माता-पिता को रात के खाने में नींद की गोलियां मिला देता था, ताकि रातभर गेम खेल सके। इस बीच, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ऑनलाइन गेमिंग पर नई नीति तैयार कर रहा है। अगले तीन महीने में ड्राफ्ट सामने आ सकता है। मोबाइल गेम्स के बच्चाें पर दुष्प्रभाव बता रही हैं साइबर साइकोलॉजी एक्सपर्ट निराली भाटिया…
सवाल: हिंसक मोबाइल गेम खेलने के पीछे कारण?
जवाब: बच्चों पर इन्हें ट्राई करने का पीयर प्रेशर होता है। उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उनसे हार रहे हैं। गेमिंग वर्ल्ड में उनकी इज्जत हो रही है। उनमें किसी चीज का गुस्सा होता है तो वे भड़ास निकालने के लिए ये गेम्स खेलते हैं।
सवाल: स्ट्रिक्ट होना, उम्र तय करना समाधान होगा?
जवाब: स्ट्रिक्ट होना समाधान नहीं है। आजकल पढ़ाई-लिखाई भी मोबाइल से हो रही है, इसलिए मोबाइल न देना भी मुश्किल है। लत लगने की कोई उम्र नहीं है। पेरेंट्स इसलिए नहीं रोक पाते क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि बच्चा क्या-क्यों कर रहा है। डिजिटल लिट्रेसी की कमी है। बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार करना होगा। उन्हें घर का अहम हिस्सा बनाकर रखें ताकि अकेलापन न लगे।
सवाल: कैसे बच सकते हैं? कैसे पता चले कि लत लग रही?
जवाब: बच्चों को कार या बाइक देने से पहले हर जोखिम और सावधानी के बारे में समझाते हैं, ऐसा ही मोबाइल को लेकर करना होगा। पेरेंट्स को खुद भी उदाहरण बनना होगा। वे खुद दिनभर मोबाइल में लगे रहेंगे तो बच्चों को रोकना मुश्किल होगा। मोबाइल यूज को लेकर कुछ नियम बनाने होंगे। इसमें बच्चों की राय लें तो बेहतर होगा। इससे उनमें जिम्मेदारी की भावना आती है।
रही बात लत की तो लत एक दिन में नहीं लगती। कोई तो संकेत जरूर होते हैं। बच्चों का सोने, खाने-पीने और रियल लाइफ शेड्यूल बिगड़े, तो समझें कि लत की शुरुआत है। बच्चों को भी यह समझ आता है, पर वे बेबस महसूस करते हैं। उन्हें मनोरंजन का विकल्प नजर नहीं आता। उनसे प्यार से बात कर, समय बिताकर मदद कर सकते हैं।
सवाल: बच्चे अपराधी बन रहे हैं तो ये मुद्दा परिवार तक नहीं रह जाता। इसमें सरकार क्या कर सकती है?
जवाब: सरकार बहुत कुछ कर सकती है। सबसे बड़ी बात बच्चों को ऐसा कंटेंट दिया ही क्यों जा रहा है? सेंसर बोर्ड की तरह इसे फिल्टर करने की व्यवस्था क्यों नहीं? सरकार को मजबूती के साथ गेम्स से बच्चों को एक्सपोज होने से रोकना चाहिए।
सवाल: मोबाइल गेम की लत तेजी से क्यों बढ़ी है?
जवाब: मोबाइल गेम्स का अनुभव इतना रियल होता है कि वे अलग दुनिया जैसे लगते हैं। बच्चों के पास अपना कैरेक्टर चुनने, डिजाइन करने और अपने हिसाब से चलाने का मौका होता है। बच्चे उस कैरेक्टर को जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं। ये चीज असल जिंदगी से एस्केप का काम करती है। स्क्रीन की यही दुनिया लत बन जाती है।
सवाल: बच्चों की पर्सनैलिटी पर असर?
जवाब: इंसान का शारीरिक और मानसिक विकास एक साथ होना चाहिए, पर ये गेम्स बच्चों के नाजुक दिमाग को बार-बार एक ही तरह का हिंसक कंटेंट दिखाकर उन्हें उस दिशा में विकसित करते हैं। गेम्स में बंदूक चलाकर और लोगों को मारकर वे आक्रामक और कम भावनात्मक हो जाते हैं। मेरे पास एक केस आया, जहां 29 साल का एक आदमी गेम से इतना प्रभावित हुआ कि मुंबई की इमारत की छत पर तीन दिन तक स्नाइपर बनकर बैठा रहा। लंबे समय तक ये गेम्स खेलकर बच्चे रियल वर्ल्ड में भी हिंसात्मक बर्ताव करने लग सकते हैं।